दिल्ली चुनावों में उत्तराखंडियों को क्यों नहीं मिलता टिकट?
Uttarakhand News, New Delhi - आज सुबह फोन पर एक मित्र से बात हुई, तो दिल्ली और उत्तराखंड में क्रम से सालों से राज करते आ रहे दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों - कांग्रेस और भाजपा - को लेकर उनमें दिल के किसी कोने में छिपी निराशा उभरकर सामने आ गई। उनका कहना था कि ये राजनीतिक दल किसी भी उत्तराखंडी व्यक्ति को दिल्ली की किसी भी संसदीय सीट का उम्मीदवार निकट भविष्य में तो नहीं बनाएंगे। उनके हृदय की पीड़ा को उत्तराखंडी समाज समझ सकता है - लगभग 36 लाख की जनसंख्या और अपना एक भी प्रतिनिधि नहीं?
दरअसल उक्त मित्र स्वयं भी इन्हीं राजनीतिक दलों में से एक में वर्षों से अपनी निस्वार्थ सेवाएं देते आ रहे हैं। एम.पी. तो दूर, उन्हें कभी काउंसलर (निगम पार्षद) के लायक भी इन राष्ट्रीय दलों ने नहीं समझा। अब आप पूछेंगे कि क्या यह व्यक्ति वास्तव में लायक है - जी हां, सौ प्रतिशत लायक है यह वयक्ति। उन्हें उनके इलाके में बहुत सम्मान प्राप्त है, चुनाव के वक्त क्षेत्रीय उम्मीदवार उनके घर जाकर उत्तराखंडी वोटों का 'आशीर्वाद' लेते रहे हैं और अनेक व्यक्ति अपनी समस्याएं लेकर उनके पास जाते हैं। शायद केवल सैकड़ों नहीं, बल्कि हजारों लोग क्षेत्र के लिए उनके किए कामों को गिना सकते हैं। फिर क्या वजह है कि राष्ट्रीय दलों को वह केवल वोटों का आशीर्वाद लेते वक्त ही दिखते हैं, टिकट देते वक्त वह नजर नहीं आते?
यह कहानी केवल इस लेख में वर्णित मेरे मित्र की नहीं है। दिल्ली में ऐसे पचासों उत्तराखंडी मिल जाएंगे, जो तमाम योग्यताओं के बावजूद उपेक्षा का अंधकार झेल रहे हैं। वजह साफ है - राजनीतिक दलों में टिकट बांटने वाले 'दलालों' को ऐसे लोग कभी खुश नहीं कर पाते। कुछ जानकारों का तो यह भी कहना है कि दरअसल ऐसे लोगों के पास लोकप्रियता, कार्यक्षमता, निष्ठा, लगन और दल के प्रति स्वामीभक्ति तो होती है, पर चंदे में देने के लिए करोड़ों रुपये का उनके पास अभाव रहता है। यहां तक कि खुद स्थानीय उत्तराखंडी छुटभैये नेता भी, जो अपनी-अपनी गली के स्वयंभू नेता होते हैें, केवल 'एक बोतल और एक दिन के भोज' पर अपना ईमान गिरवी रख देते हैं और अपने उत्तराखंडी भाई का साथ नहीं देते।
तो प्रश्न यह है कि ऐसे उपेक्षित उत्तराखंडियों को करना क्या चाहिए? सारा जीवन ऐसे दल में बिता देना चाहिए, जो उनकी कद्र नहीं करता या विकल्प की तलाश करनी चाहिए। क्या जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन स्थिति में कुछ अंतर ला पाएगा? क्या हरीश रावत, किशोर उपाध्याय या धीरेंद्र प्रताप जैसे कांग्रेसी नेता समर्थन का हाथ बढ़ाकर उनकी दुर्दशा को सुधार सकते हैं? क्या दिल्ली में उत्तराखंड समाज को दिशा देने का काम करने वाले जगदीश ममगाईं, बिट्टू उप्रेती, बछेती जी या टम्टा जी जैसे लोग स्थिति में सुधार करने में सक्षम हैं? मेरे पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं। इन प्रश्नों का उत्तर तो वही लोग दे सकते हैं, जो खुद राजनीति के अखाड़ों में सालों से जोर-आजमाइश करते रहे हैं, पर टिकट रूपी पुरस्कार उन्हें अभी तक नहीं मिला।
दरअसल उक्त मित्र स्वयं भी इन्हीं राजनीतिक दलों में से एक में वर्षों से अपनी निस्वार्थ सेवाएं देते आ रहे हैं। एम.पी. तो दूर, उन्हें कभी काउंसलर (निगम पार्षद) के लायक भी इन राष्ट्रीय दलों ने नहीं समझा। अब आप पूछेंगे कि क्या यह व्यक्ति वास्तव में लायक है - जी हां, सौ प्रतिशत लायक है यह वयक्ति। उन्हें उनके इलाके में बहुत सम्मान प्राप्त है, चुनाव के वक्त क्षेत्रीय उम्मीदवार उनके घर जाकर उत्तराखंडी वोटों का 'आशीर्वाद' लेते रहे हैं और अनेक व्यक्ति अपनी समस्याएं लेकर उनके पास जाते हैं। शायद केवल सैकड़ों नहीं, बल्कि हजारों लोग क्षेत्र के लिए उनके किए कामों को गिना सकते हैं। फिर क्या वजह है कि राष्ट्रीय दलों को वह केवल वोटों का आशीर्वाद लेते वक्त ही दिखते हैं, टिकट देते वक्त वह नजर नहीं आते?
यह कहानी केवल इस लेख में वर्णित मेरे मित्र की नहीं है। दिल्ली में ऐसे पचासों उत्तराखंडी मिल जाएंगे, जो तमाम योग्यताओं के बावजूद उपेक्षा का अंधकार झेल रहे हैं। वजह साफ है - राजनीतिक दलों में टिकट बांटने वाले 'दलालों' को ऐसे लोग कभी खुश नहीं कर पाते। कुछ जानकारों का तो यह भी कहना है कि दरअसल ऐसे लोगों के पास लोकप्रियता, कार्यक्षमता, निष्ठा, लगन और दल के प्रति स्वामीभक्ति तो होती है, पर चंदे में देने के लिए करोड़ों रुपये का उनके पास अभाव रहता है। यहां तक कि खुद स्थानीय उत्तराखंडी छुटभैये नेता भी, जो अपनी-अपनी गली के स्वयंभू नेता होते हैें, केवल 'एक बोतल और एक दिन के भोज' पर अपना ईमान गिरवी रख देते हैं और अपने उत्तराखंडी भाई का साथ नहीं देते।
तो प्रश्न यह है कि ऐसे उपेक्षित उत्तराखंडियों को करना क्या चाहिए? सारा जीवन ऐसे दल में बिता देना चाहिए, जो उनकी कद्र नहीं करता या विकल्प की तलाश करनी चाहिए। क्या जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन स्थिति में कुछ अंतर ला पाएगा? क्या हरीश रावत, किशोर उपाध्याय या धीरेंद्र प्रताप जैसे कांग्रेसी नेता समर्थन का हाथ बढ़ाकर उनकी दुर्दशा को सुधार सकते हैं? क्या दिल्ली में उत्तराखंड समाज को दिशा देने का काम करने वाले जगदीश ममगाईं, बिट्टू उप्रेती, बछेती जी या टम्टा जी जैसे लोग स्थिति में सुधार करने में सक्षम हैं? मेरे पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं। इन प्रश्नों का उत्तर तो वही लोग दे सकते हैं, जो खुद राजनीति के अखाड़ों में सालों से जोर-आजमाइश करते रहे हैं, पर टिकट रूपी पुरस्कार उन्हें अभी तक नहीं मिला।
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