उत्तराखंडियों के लिए दिल्ली विधानसभा चुनाव निरर्थक
Uttarakhand News - उत्तराखंड मूल के लोगों के लिए दिल्ली विधानसभा चुनाव कोई अच्छी खबर लेकर नहीं आए। मतदान फरवरी के पहले हफ्ते में होने हैं, पर एक बात तो अभी से तय है कि हम लोगों को अपनी जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व दिल्ली में तो नहीं मिलने वाला है।
उत्तराखंड एकता मंच ने दिल्ली में उत्तराखंडियों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक अच्छा कदम उठाया था। कुछ समय के लिए ऐसा लगा भी था कि उत्तराखंडी एकजुट हो गए हैं और इसके दूरगामी प्रभाव होगें, पर आखिर में ऐसा कुछ नहीं हुआ और पहले की तरह ही उत्तराखंड मूल के लोगों की उपेक्षा जारी है।
भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल उत्तराखंड जाकर खुद को उत्तराखंडियों का सबसे बड़ा रहनुमा बताते रहे हैं, पर अब उनकी असलियत खुल कर सामने आ गई है। दोनों ही राष्ट्रीय दलों ने उत्तराखंडियों को यह जता दिया है कि उनकी नज़र में हम लोगों की कोई राजनीतिक औकात नहीं है। शायद वे आज भी हमें चपरासी, घरों में काम करने वाले, छोटे-मोटे ढाबों के कुक-वेटर और फील्ड ब्वॉय ही समझते हैं। मैं यहां साफ कर देना चाहूंगा कि मेरी दृष्टि में कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं है। लेकिन टिकट का सौदा करने वाले दलालों की नजर नोटों से भरी थैलियों और टिकटार्थियों की बड़ी जेबों पर लगी रहती है। ऐसे दलाल टिकट बांटते समय यह ज़रूर सोचते होंगे कि ये बेचारे उत्तराखंडी कहां से लाएंगे करोड़ों रुपये टिकट खरीदने के लिए।
भाजपा ने तो प्राथमिकता से टिकट उन नेताओं को दिए, जो कांग्रेस या आम आदमी पार्टी छोड़कर उनके कुनबे में शामिल हो गए। क्या यह उन लाखों भाजपाइयों का अपमान नहीं है, जो पार्टी के कार्यक्रमों में दरी बिछाने से लेकर भीड़ जुटाने का काम तब से कर रहे थे, जब भाजपा के पास देश भर में केवल दो सांसद थे? यही वजह है कि इस बार विधानसभा उम्मीदवारों के नाम घोषित होते ही भाजपा कार्यकर्ताओं में रोष फूट पड़ा था। वरिष्ठ भाजपा नेता और दिल्ली नगर निगम के पूर्व चेयरमैन जगदीश ममगाईं ने इस विषय पर कहा, "दलबदलुओं और अवसरवादियों को महत्व देते हुए पूर्वांचल के 35-40 लाख मतदाताओं और उत्तराखंड के 20-22 लाख मतदाताओं को किनारे किया गया है। लोकसभा चुनाव में इन दोनों वर्गों ने बीजेपी का जमकर समर्थन किया था, पर केवल दो पूर्वांचली और एक उत्तराखंडी को टिकट दिया गया है।"
दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने एक और कांग्रेस ने भी केवल एक ही सीट पर उत्तराखंड मूल के व्यक्ति को चुनावी रणक्षेत्र में भेजने का फैसला किया है। मोहन सिंह बिष्ट और लीलाधर भट्ट यदि उत्तराखंड मूल के न भी होते, तो भी उन्हें विधानसभा का उम्मीदवार बनाया जाता लगभग तय था। लेकिन बाकी उत्तराखंडियों का क्या, जो दिल्ली में टिकट की आस लगाए बैठे थे?
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भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल उत्तराखंड जाकर खुद को उत्तराखंडियों का सबसे बड़ा रहनुमा बताते रहे हैं, पर अब उनकी असलियत खुल कर सामने आ गई है। दोनों ही राष्ट्रीय दलों ने उत्तराखंडियों को यह जता दिया है कि उनकी नज़र में हम लोगों की कोई राजनीतिक औकात नहीं है। शायद वे आज भी हमें चपरासी, घरों में काम करने वाले, छोटे-मोटे ढाबों के कुक-वेटर और फील्ड ब्वॉय ही समझते हैं। मैं यहां साफ कर देना चाहूंगा कि मेरी दृष्टि में कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं है। लेकिन टिकट का सौदा करने वाले दलालों की नजर नोटों से भरी थैलियों और टिकटार्थियों की बड़ी जेबों पर लगी रहती है। ऐसे दलाल टिकट बांटते समय यह ज़रूर सोचते होंगे कि ये बेचारे उत्तराखंडी कहां से लाएंगे करोड़ों रुपये टिकट खरीदने के लिए।
भाजपा ने तो प्राथमिकता से टिकट उन नेताओं को दिए, जो कांग्रेस या आम आदमी पार्टी छोड़कर उनके कुनबे में शामिल हो गए। क्या यह उन लाखों भाजपाइयों का अपमान नहीं है, जो पार्टी के कार्यक्रमों में दरी बिछाने से लेकर भीड़ जुटाने का काम तब से कर रहे थे, जब भाजपा के पास देश भर में केवल दो सांसद थे? यही वजह है कि इस बार विधानसभा उम्मीदवारों के नाम घोषित होते ही भाजपा कार्यकर्ताओं में रोष फूट पड़ा था। वरिष्ठ भाजपा नेता और दिल्ली नगर निगम के पूर्व चेयरमैन जगदीश ममगाईं ने इस विषय पर कहा, "दलबदलुओं और अवसरवादियों को महत्व देते हुए पूर्वांचल के 35-40 लाख मतदाताओं और उत्तराखंड के 20-22 लाख मतदाताओं को किनारे किया गया है। लोकसभा चुनाव में इन दोनों वर्गों ने बीजेपी का जमकर समर्थन किया था, पर केवल दो पूर्वांचली और एक उत्तराखंडी को टिकट दिया गया है।"
दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने एक और कांग्रेस ने भी केवल एक ही सीट पर उत्तराखंड मूल के व्यक्ति को चुनावी रणक्षेत्र में भेजने का फैसला किया है। मोहन सिंह बिष्ट और लीलाधर भट्ट यदि उत्तराखंड मूल के न भी होते, तो भी उन्हें विधानसभा का उम्मीदवार बनाया जाता लगभग तय था। लेकिन बाकी उत्तराखंडियों का क्या, जो दिल्ली में टिकट की आस लगाए बैठे थे?
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