हरीश रावत की ये 5 गलतियां भी बनीं उत्तराखंड के राजनीतिक संकट की वजह

उत्तराखंड आज गंभीर राजनीतिक संकट में फंसा है, तो हरीश रावत से ज़्यादा इसके लिए कोई और दोषी नहीं है। आप कहेंगे कि हरीश रावत तो खुद षड्यंत्रकारियों की चालबाज़ी का शिकार हुए हैं। आपकी बात ग़लत नहीं है, लेकिन याद रखिए कि सतपाल महाराज और बहुगुणा ने कांग्रेस खुशी-खुशी या आऱसएस की विचारधारा में अचानक उमड़ आई श्रृद्धा की वजह से नहीं छोड़ी थी। क्या हरीश रावत नहीं जानते थे कि ये दिग्गज नेता उनके खिलाफ ऐसे ही किसी सत्ता-पलटू साजिश में व्यस्त होंगे? 

अगर हम कहें कि हरीश रावत आज उत्तराखंड के सबसे बड़े राजनीतिज्ञ हैं, तो उनके करीब 4 दशक लंबे राजनीतिक जीवन को देखते हुए यह ग़लत नहीं होगा। कई बड़े पदों पर वह रहे और कई चुनाव उन्होंने जीते, सबसे बड़ी बात कि उत्तराखंड के निर्माण के बाद जब भी कांग्रेस ने राज्य में सत्ता का स्वाद चखा, उसमें हरीश रावत का योगदान सबसे ज़्यादा था। फिर भी आज अगर उत्तराखंड राजनीतिक संकट में फंसा है, तो इसके लिए हरीश रावत के ये 5 फैसले जिम्मेदार हैं: 

  1. कई खेमों में बंटी उत्तराखंड कांग्रेस को एकजुट करने की कोशिश नहीं करना - सतपाल महाराज के भाजपा में जाने के बाद से ही बगावत की शुरुआत हो गई थी, हरीश रावत ने कांग्रेस को एकजुट करने की कोशिश नहीं की।
  1. खुद अपना गुट बनाकर उसे पालना-पोसना - मुख्यमंत्री बनने के बाद हरीश रावत को उत्तराखंड में दरबारी कल्चर खत्म करना चाहिए था और कांग्रेस में गुटबाजी खत्म करनी चाहिए थी, लेकिन वह खुद ही गुटबाजी के खेल में शामिल हो गए। उन्होंने हमेशा ये कोशिश की कि उनका गुट सबसे मज़बूत हो जाए। विरोधी गुटों को साथ रखने के लिए पद और लाभ बांटने पड़ते हैं, शायद रावत गुट इस बलिदान के लिए तैयार नहीं था। 
  1. दाग़ी अफसरों की तैनाती - हरीश रावत की सरकार में कई ऐसे अफसरों को भी महत्वपूर्ण विभागों में तैनात किया गया, जिनके अपने दामन पर दाग़ थे। विरोधी इसमें राजनीतिक अवसर देख रहे थे, लेकिन जनता को तो रोज़-रोज़ इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा था। यही वजह है कि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगने का आम उत्तराखंडी जनता ज़रा-सा भी विरोध नहीं कर रही है। 
  1. नाराज़ विधायकों को न मनाना - उत्तराखंड में कांग्रेस के पास विशाल बहुमत नहीं था, तो ऐसे में अपने नाराज़ विधायकों न मनाना खुद बगावत की आग को सुलगाने जैसा था। उत्तराखंड में यही हुआ। सतपाल महाराज से तो हरीश रावत की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता थी ही, जब बहुगुणा मुख्यमंत्री पद से हटे, तो हरीश रावत ने उन्हें भी कोई महत्व नहीं दिया। तो दुश्मन का दुश्मन दोस्त साबित हुआ, तो बहुगुणा ने सतपाल से हाथ मिला लिया। इसके अलावा रायपुर (देहरादून) के विधायक ने एक अफसर की शिकायत मुख्यमंत्री से की, तो हरीश रावत ने कोई ध्यान नहीं दिया। परेशान विधायक ने अपना इस्तीफा लिखकर भी दिया, तो भी हरीश रावत सरकार ने दाग़ी अधिकारी के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया। 
  1. अपनी सरकार के खिलाफ बगावत की तैयारियों को भांपने में फेल रहे हरीश रावत - हरीश रावत को उत्तराखंड की राजनीति का चाणक्य कहा जाता रहा है। उन्होंने हरिद्वार सीट से चुनाव कुमाऊं के भेदभाव को बहुत सीमा तक खत्म किया है, मगर अपनी सरकार के खिलाफ चल रही बगावत की तैयारियों को भांपने में वह बुरी तरह से फेल साबित हुए और इसकी कीमत उन्हें उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के रूप में भुगतनी पड़ रही है। 

इतना सबकुछ होने के बावजूद यह भी सच है कि हरीश रावत इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हैं। उन्होंने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने के फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी है। अगले हफ्ते तक साफ हो जाएगा कि कोर्ट में हरीश रावत को जीत मिलती है या नहीं।

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