उत्तराखंड में अराजकता जैसे हालात के लिए - कांग्रेस और भाजपा दोनों जिम्मेदार

पंद्रह साल से जिस डगर पर उत्तराखंड की राजनीति चल रही है,उसका इससे बुरा हश्र और क्या सकता है कि उस राज्य की अब दिल्ली दरबार में कोई पूछ तक नहीं होती वह अब सुर्खियों में आया भी तो बदनुमा दागों ने राज्य की जनता को शर्मसार कर डाला। दो साल पहले लोकसभा चुनावों में पांचों सीटें भाजपा की झोली में डालने के बावजूद पहाड़ के लोग अच्छे दिनों के लिए तरस रहे हैं। केंद्र में कोई मंत्री तक नहीं बनाया गया।
उत्तराखंड के लोगों के लिए अब सुकुन मनाने को महज यही जुमला बचा है कि - नाम बड़े और दर्शन छोटेे! हाल में इस छोटे प्रदेेश में पिछलेे माह कांग्रेस विधायक दल दो फाड़ हुआ तो जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद हाल के हैरतअंगेज संवैधानिक संकट ने यहां की सरल दिखने वाली राजनीति के मिजाज में भूचाल पैदा कर डाला। 70 सदस्यीय विधानसभा वाले इस प्रदेश में सरकार गिरानेेे-बचाने के लिए एक- एक विधायक की बोली करोड़ों में लगी तो सत्ता और धनबल की मायावी जाल से  आम लोग भौंचक्क हैं।

राज्य सरकार की बर्खास्तगी का मामला अब विकट कानूनी दांवपेच में उलझ चुका है। कई- कई मुकदमों की झड़ी लग चुकी है। नैनीताल की उत्तराखंड हाईकोर्ट में बहस अब इस बात पर हो रही है कि पहले मुर्गी पैदा हुई या अंडा। 18 मार्च को विधानसभा में कथित तौर पर अल्पमत में आयी हरीश रावत सरकार के विनियोग विधेेयक को केंद्र ने अवैध ठहराते हुए नया आध्यादेश जारी कर दिया तो वहां के स्पीकर का दावा है कि उन्होने इस विधेयक को पारित मान लिया था और लगे हाथ कांग्रेस के बागी नौ विधायकों की सदस्यता खत्म कर डाली। केंद्र ने मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा विधायकों की सौदेबाजी के स्ंिटग के आधार पर राज्य में 356 लगा दिया तो बर्खास्त विधायक भी स्टेे के लिए हाईकोर्ट धमक आए।

त्रायदी यह है कि अलग राज्य बनने 16 साल बाद भी यहां नेताओं व असफरों की मौज के अलावा सब कुछ पटरी से उतरा हुआ है। यहां लोगों ने बारी- बारी से भाजपा- कांग्रेस का शासन चलाने की बंदरबांट करीब से देख ली। इन तमाम बरसों में ये दोनों पार्टियां प्रदेश की स्थायी राजधानी तक नहीं बना पाईं तोे लोगों नेे उनसे विकास की उम्मीदें कैसे करें।ं जिस मकसद के लिए इस राज्य की नींव पड़ी, वे सारे सपने दोेनों दलों ने मिलजुलकर सत्ता में के नशे में दफन कर दिए गए। मुख्यमंत्री हरीश रावत को जब कुछेक ज्योतिषियों नेे पठा दिया कि अगले चुनाव के बाद वे ही दोेबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले हैं तो तब से वे फूले नहीं समा रहेे थे। उसके पहले अंधेर नगरी चैपट राजा की तर्ज पर उनके दरबारियों नेे कुछ दिनों पहले रेसलिंग का खूनी खेेल पर राज्य का पैसा लुटाकर पूरे देश में इस पहाड़ी राज्य का माखौल उड़वा दिया।

त्रासदी यह है कि सियासत में बैठे लोग पर्वतीय लोगों के हितों के प्रति आंख बंद कर बैठे हैं। यहां से बडे पैमाने पर सुदूर गांवों से पलायन  अलग राज्य बनने के बाद तेज होता गया। करीब 3000 गांव खाली होकर वीरान खंडहरों में तब्दील होे चुके लेकिन मुख्यमंत्री और उनके नौकरशाहों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं क्योंकि इन उजड़ते गांवों को आबाद करने में शायद ही किसी जमीन, रेत- बजरी या शराब माफिया की कोई दिलचस्पी होगी। इसके उलट मुख्यमंत्री रावत को देहरादून को स्मार्ट सिटी बनाने की चिंता दिन - रात सताए जा रही थी। त्रासदी यह है कि उत्तराखंड में सत्ता में आतेे ही कांग्रेस व भाजपा दोनों एक नाव में सवार हो जाते हैं। सत्ता से पैसा और पैसे से सत्ता का मूल मंत्र एक है। दोनों दलों में कौन मुख्यमंत्री होगा और कौन कब हटेगा यह सब दिल्ली तय करती है।सोे आम पर्वतीय लोगों के लिए अलग राज्य अभिषाप बन चुका है।

एक बात पहाड़ के उत्तराखंडवासियों को बखूबी पता लग चुकी कि 18 मार्च 2016 को उत्तराखंड की विधानसभा में सरकार गिराने को जो भी नाटक हुआ, उसका पहाड़ी जनता के आंसू पोंछनेे या उनकी दुख तकलीफों से कुछ भी लेना देना नहीं है। एक दूसरे को सबक सिखाने, बदला लेने, हिसाब चुकता करने, कुर्सी हथियाने, पद पैसा और संपत्तियां बनाने तक सारी लड़ाई सिमटी हुई है। ये सब भूल गए कि इस राज्य का निर्माण पहाड़ों की भोली-भाली जनता के कड़ेे संघर्ष से हुआ। सुदूर गांव- देहातों में जिन्होंने कभी किसी आंदोलन को देखा तक न था वे 20- 22 बरस पूर्व अलग राज्य आंदोलन में कूदे। खटीमा, मसूरी और मुजफ्फरनगर गोली कांड हुआ। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान  कुल 46 लोगों नेे अपनी जानें कुर्बान कीं।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 9 नवंबर सन् 2000 को भाजपा की पहली अंतरिम सरकार बनने के साथ ही इस नवोदित राज्य के बुरे दिन शुरू हुए। केंद्र में भाजपा सरकार थी। उसने बिना कुछ सोचे समझे देहरादून को अस्थायी राजधानी बनाने का सबसे बड़ा आत्मघाती फैसला किया और नित्यानंद स्वामी को अंतरिम सरकार का मुख्यमंत्री बना दिया। यहीं से इस पर्वतीय राज्य की राजधानी देहरादून, सत्ता के दलालों, जमीनों की खरीद-फरोख्त में जुटे प्राॅपर्टी डीलरों, ठेकेदारों, शराब, रेत, बजरी, जंगलों से अवैध लकड़ी और कई तरह की तस्करी का खेल शुरू हुआ। माफिया को और सुगमता  इसलिए हुई कि हरिद्वार की नगरपालिका के बाहर पूरा हरिद्वार जिला जो पश्चिमी यूपी से तीन ओर घिरा है, उसे उत्तराखंड में शामिल करा दिया गया। दूसरा उधमसिंह नगर जिला है जहां देहरादून की तरह बड़े पैमाने पर मैदानी क्षेत्रों के लोगों ने लचर कानूनों को ठेंगा दिखाकर राज्य बनने के बाद बेहिसाब जमीन व संपत्तियां खरीद लीं। राज्य निर्माण के बाद सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानीय परंपरागत कृषि व्यवस्था मजबूत करने व गांवों को स्वावलंबी बनाने की बातें पार्टियों के एजेंडे से बाहर हो गई। एक नई पहल 2007 में जरूर हुई जब भाजपा सरकार ने  108 नंबर की आपात मेडिकल एंबुलेंस की शुरुआत की। लेकिन बेसिक शिक्षा की गुणवत्ता, घर बैठकर सरकार से मोटा वेतन लेने वाले कामचोर शिक्षकों व सफेद हाथी बन चुके शिक्षा विभाग को रास्ते पर लाने की सारी कसरतें बेकार साबित हुईं।  उद्योगांें से पिछडे़ उत्तराखंड में विशेष राज्य की टैक्स छूट लूटने नाम पर नया गोरखधंधा अलग से चालू हुआ। इसमें उद्योगों को लुभाने के नाम पर उन्हें कौडि़यों के भाव फैक्ट्रियां और औद्योगिक भूमि के मालिक  बनाने का गोरखधंधा कई घोटालों का रूप ले चुका है। टैक्स चोरी के लिए इन उद्योगों में उत्पादन केवल कागजों में दिखाया जाता है। विशेष राज्य के दर्जे के तहत इक्साइज व सेल टैक्स छूट का लाभ उठाकर उत्तराखंड के राजकोष को खुलेआम लूटा जा रहा है।

शराब कारोबार की डोर सत्ता में बैठे ताकतवर लोगों के हाथ में राज्य बनने के पहले से थी लेकिन उसके बाद तो शराब के कारोबार में शामिल व उन्हें सरंक्षण देने वाले लोग पहले भाजपा व बाद में कांग्रेस दोनों सरकारों में मंत्री व दूसरे अहम पदों पर सुशोभित रहे। सरकारें बनाने व गिराने का पूरा काम शराब माफिया के हाथ में 2002 में नारायण दत्त तिवारी व उसके पहले भाजपा की अंतरिम सरकार में ही चालू हो चुका था।   नारायणदत्त तिवारी बनाम हरीश रावत की टकराहट शुरू हुई तो उत्तराखंड, यूपी और पंजाब में शराब कारोबारियों व गुर्गांेे का पूरा काफिला उत्तराखंड भवन से लेकर उत्तरप्रदेश भवन तक डेरा डाले देखा जाता था। 2002 के बाद कांग्रेस की पांच साल तक सरकार रही। शराब माफिया की एक ही मांग होती है कि राज्य की शराब नीति हम तैयार केरंगे। शराब की बिक्री उत्तराखंड के गांव-गांव में होती है, सो शराब के सारे कारोबारी राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में अकूत संपत्तियांें के मालिक बनते रहे। 2007 में कांग्रेस की तिवारी सरकार के हटनेे के बाद भाजपा की सरकार बनी तो भाजपा सरकार ने शराब नीति को पारदर्शी बनाने की कोशिश हुई तो इससे शराब माफिया ने विरोध करना शुरू किया। शराब माफिया ने उस दौर में भाजपा आलाकमान में भी पैठ बनाई और दिल्ली में भाजपा आलाकमान तक अपनी गोटियां फिट करके जनरल बीसी खंडूडी की तत्कालीन सरकार को पूरे दो साल तक अस्थिर करने का खुला खेल किया। जीत शराब माफिया की हुई, क्योंकि तब मुख्यमंत्री की कार्यशैली से नाराज विधायकों की दिल्ली दौड़ और उनके मोटे खर्चों का इंतजाम शराब माफिया के लोग करते थे।

फरवरी 2014 में हरीश रावत के सीएम बनने के बाद पहाड़ के लोगों के मन में कई तरह की आस- उम्मीदें जगीं थीं। लेकिन जमीन माफिया, बिल्डर, भ्रष्ट और बदनाम नौकरशाहों को संरक्षण देने की उनकी प्रवृत्ति ही उनके लिए आत्मघाती साबित हुई। कुछ बदनाम लोगों सेे घिरे होने, पार्टी में सबको साथ लेकर न चलाना और सत्ता के गरूर में वे अपने ही लोगों से दूर होते गए। बिल्डर व जमीनों के कारोबार करने वालों के टीवी चैनलों की बाढ और नेताओं, मंत्रियों और अफसरों से उनकी सांठगांठ और ब्लैकमेल की दोहरी चालबाजियों से पूरे पहाड़ में त्राहि-त्राहि मची है। माफिया और ब्लैकमेलर मीडिया की पहुंच जब सीधे सत्ता व विपक्ष के शीर्ष पर बैठे लोगों के बेडरूम तक हो फिर ऐसी तरह कठपुतली सरकारें रहें या जाएं, जनता क्यों परवाह करेगी।
---  उमाकांत लखेड़ा
(उमाकांत लखेड़ा जी हिंदी के बड़े पत्रकार हैं और दैनिक जागरण व हिंदुस्तान जैसे अखबारों में महत्वपूर्ण पदों की शोभा बढ़ा चुके हैं।)

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